संदर्भ
लगभग 14 महीने से कर्नाटक में सरकार को लेकर चल रही अस्थिरता एक सप्ताह तक चले ड्रामे के बाद 23 जुलाई को तब समाप्त हो गई, जब सत्तारूढ़ कॉन्ग्रेस और जद (यू) की सरकार विश्वास मत हार गई और मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने इस्तीफा दे दिया। इस सारी कवायद के दौरान विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और राज्यपाल की भूमिका का मुद्दा बार-बार चर्चा में आता रहा, क्योंकि ये चारों ही इस प्रक्रिया के दौरान सक्रिय रहे।
आज़ादी के बाद भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने और शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये केंद्रीय स्तर पर जहाँ संसद की व्यवस्था की, वहीं राज्यों में विधानसभा के गठन का प्रस्ताव किया। इसके साथ ही लोकसभा के संचालन और गरिमा बनाए रखने के लिये लोकसभा अध्यक्ष और राज्यों में विधानसभा अध्यक्ष के पद का प्रावधान किया।
राज्यों में विधानसभा अध्यक्ष सदन की कार्यवाही और उसकी गतिविधियों के संचालन के लिये पूरी तरह जवाबदेह होता है। विधानसभा अध्यक्ष से यह अपेक्षित होता है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी दलों के साथ तालमेल बनाकर इस पद की गरिमा को बरकरार रखेगा। विधानसभा अध्यक्ष का निर्विरोध निर्वाचित होना और उसका किसी भी दल के प्रति झुकाव नहीं होने वाला स्वरूप समाज की उस राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक है जो लोकतंत्रीय व्यवस्था की प्रमुख आधारशिला है।
सीधे-सरल शब्दों में कहें तो विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है। इन तीनों को लोकतंत्र का आधार-स्तंभ माना जाता है।
विधानसभाध्यक्ष के कर्त्तव्य और अधिकार
विधानसभा अध्यक्ष राज्य विधायिका का एक प्रमुख अंग होता है। हालिया कर्नाटक मामले में हमने देखा कि राज्यपाल से कई बार समय-सीमा का अल्टीमेटम मिलने के बाद भी विधानसभाध्यक्ष ने अपने विवेकानुसार ही राज्यसभा में शक्ति परीक्षण कराया। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया, लेकिन उसने भी विधानसभाध्यक्ष को कोई भी निर्देश न देते हुए उनके अधिकारों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
राज्यों की विधायिका विधानसभा के लिये निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से गठित होती है। इन जनप्रतिनिधियों को विधायक कहा जाता है।
- विधानसभा की कार्यवाही को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष का प्रावधान संविधान में है।
- विधानसभा का गठन होने के बाद उसके प्रथम सत्र में ही विधानसभा सदस्यों द्वारा विधानसभा अध्यक्ष चुना जाता है।
- अध्यक्ष के अलावा विधानसभा के सदस्य उपाध्यक्ष का चुनाव भी करते हैं, जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका कार्यभार संभालता है।
विधानसभा अध्यक्ष के प्रमुख कार्यों में वही सब कार्य आते हैं, जो लोकसभा अध्यक्ष करता है, जैसे-
- सदन में अनुशासन बनाए रखना
- सदन की कार्यवाही का सुचारु रूप से संचालन करना
- सदस्यों को बोलने की अनुमति प्रदान करना
- पक्ष और विपक्ष में समान मत आने पर निर्णायक मत प्रदान करना
पीठासीन अधिकारी यानी विधानसभा अध्यक्ष विधानसभा एवं विधानसभा सचिवालय का प्रमुख होता है, जिसे संविधान, प्रक्रिया, नियमों एवं स्थापित संसदीय परंपराओं के तहत व्यापक अधिकार प्राप्त होते हैं। विधानसभा के परिसर में उसका प्राधिकार सर्वोच्च है। सदन की व्यवस्था बनाए रखना उसकी ज़िम्मेदारी होती है और वह सदन में सदस्यों से नियमों का पालन सुनिश्चित कराता हैं। विधानसभा अध्यक्ष सदन के वाद-विवाद में भाग नहीं लेता, बल्कि विधानसभा की कार्यवाही के दौरान अपनी व्यवस्थाएँ/निर्णय देता है, जो बाद में नज़ीर के रूप में संदर्भित की जाती हैं। विधानसभा में अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष सदन का संचालन करता है और दोनों की अनुपस्थिति में सभापति रोस्टर का कोई एक सदस्य यह ज़िम्मेदारी निभाता है।
विधानसभा सचिवालय
संविधान में यह उपबंध किया गया है कि प्रत्येक विधानसभा का अपना एक पृथक सचिवालय होगा, जिसका प्रशासकीय नियंत्रण विधानसभा अध्यक्ष के पास होगा। सचिवालय में विधानसभा के कार्य संपादित करने हेतु अधिकारी एवं कर्मचारी कार्यरत रहते हैं।
वर्तमान समय में विधानसभा द्वारा जो कार्य संपादित किये जाते हैं, उनका स्वरूप बहुत व्यापक होता है। चूँकि विधानसभा की बैठकें सीमित समय के लिये होती हैं, अत: विधानसभा के लिये यह संभव नहीं होता कि वह प्रत्येक कार्य की स्वयं सूक्ष्म जाँच करे अथवा उस पर गहन विचार-विमर्श कर सके। ऐसे में विधानसभा कतिपय कार्यों को समितियों के माध्यम से संपादित करती है। विधान सभा समितियों के माध्यम से कार्यपालिका पर प्रभावी नियंत्रण रखती है। विधानसभा की विभिन्न समितियाँ शासन से वांछित जानकारी प्राप्त करती हैं, उसका परीक्षण करती हैं। विभागीय सचिवों का मौखिक साक्ष्य लेती हैं। आवश्यकतानुसार स्थल निरीक्षण एवं अन्य राज्यों के अध्ययन हेतु दौरा भी करती हैं। परीक्षण उपरांत समितियाँ अपने प्रतिवेदन सिफारिशों के साथ समय-समय पर विधानसभा में प्रस्तुत करती हैं। यह कार्य पूरे वर्ष अनवरत चलता है।
कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका
जैसा कि हम बता चुके हैं, हमारे संविधान में राज्य की शक्तियों को तीन अंगों में बाँटा गया है- कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका। इसके अनुसार विधानपालिका का काम विधि निर्माण करना, कार्यपालिका का काम विधियों का कार्यान्वयन तथा न्यायपालिका को प्रशासन की देख-रेख, विवादों का फैसला और विधियों की व्याख्या करने का काम सौंपा गया है।
न्यायपालिका: भारत की न्यायपालिका के बारे में कहा जा सकता है कि जैसा इसका नाम है वैसा ही इसका काम है। न्यायपालिका का मूल काम, हमारे संविधान में लिखे कानून का पालन करना और करवाना है तथा कानून का पालन न करने वालों को दंडित करने का अधिकार भी इसे प्राप्त है। भारतीय न्यायिक प्रणाली को अंग्रेज़ों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाया था और उसी के अनुसार यह आज भी देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करती है। न्यायाधीश अपने आदेश और फैसले संविधान में लिखे कानून के अनुसार लेते हैं। न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिये है। न्यायपालिका विवादों को सुलझाती है, इसलिये इसकी स्वतंत्रता की रक्षा ज़रूर होनी चाहिये।
विधायिका: भारत संघ की विधायिका को संसद कहा जाता है और राज्यों की विधायिका विधानमंडल/ विधानसभा कहलाती है। देश की विधायिका यानी संसद के दो सदन हैं- उच्च सदन राज्यसभा तथा निचला सदन लोकसभा कहलाता है। राज्यसभा के लिये अप्रत्यक्ष चुनाव होता है, इसमें राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों का चुनाव एकल हस्तांतरणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार राज्यों की विधानसभाओं द्वारा निर्धारित तरीके से होता है। राज्यसभा को भंग नहीं किया जाता, बल्कि हर दूसरे वर्ष में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं। वर्तमान में राज्यसभा में 245 सीटें हैं। उनमें से 233 सदस्य राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामजद होते हैं।
लोकसभा जनप्रतिनिधियों की सभा है जिनका चुनाव वयस्क मतदान के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा होता है। संविधान द्वारा परिकल्पित सदन के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 है (530 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिये, 20 केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने के लिये और एंग्लो-इंडियन समुदाय के दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामजद किये जा सकते हैं, यदि उसके विचार से उस समुदाय का सदन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है)। वर्तमान में लोकसभा में 545 सदस्य हैं। इनमें से 530 सदस्य प्रत्यक्ष रूप राज्यों से चुने गए हैं और 13 केंद्रशासित क्षेत्रों से, जबकि दो को एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिये राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। लोकसभा का कार्यकाल इसकी पहली बैठक की तारीख से पाँच वर्ष का होता है, जब तक कि इसे पहले भंग न किया जाए।
कार्यपालिका
संघीय कार्यपालिका में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति को सहायता करने एवं सलाह देने के लिये अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री के साथ मंत्रिपरिषद होती है। केंद्र की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति को प्राप्त होती है, जो उसके द्वारा केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर संविधान सम्मत तरीके से इस्तेमाल की जाती है। राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य तथा राज्यों में विधानसभा के सदस्य समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत मतदान करते हैं। उपराष्ट्रपति के चुनाव में एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा संसद के दोनों सदनों के सदस्य मतदान के पात्र होते हैं।
राष्ट्रपति को उसके कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद होती है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। संघ के प्रशासन या कार्य और उससे संबंधित विधानों और सूचनाओं के प्रस्तावों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को देना प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य है। मंत्रिपरिषद में कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और राज्य मंत्री होते हैं।
तीनों के बीच संतुलन बेहद ज़रूरी
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने सभी उत्तरदायित्व पूर्ण करने चाहिये तथा इन तीनों के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिये किसी को भी दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- विभिन्न प्रावधानों के तहत संविधान ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच संबंधित कार्यप्रणाली में अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिये स्पष्ट रूप से रेखा खींची है।
- भारत के संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन सरकार के विभिन्न अंगों के कार्यों में पर्याप्त अंतर है। इस प्रकार सरकार का एक अंग दूसरे अंग के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
- अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका को अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में किसी भी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा करने से रोकते हैं, वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 122 और 212 अदालतों को विधायिका की आंतरिक कार्यवाही पर निर्णय लेने से रोकते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) विधायकों को उनकी भाषण की स्वतंत्रता और वोट देने की आज़ादी के संबंध में अदालतों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं।
देखा यह गया है कि जब कार्यपालिका अपने दायित्व निर्वहन में विफल रहती है, तब न्यायपालिका उसके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। 1972 में केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र की लक्ष्मण रेखा स्पष्ट खींच दी गई है। कानून बनाना विधायिका का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने या न होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है। इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये यह ज़रूरी है कि न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका के बीच एक-दूसरे के लिये आपसी सम्मान होना चाहिये और इन सभी पर किसी प्रकार का कोई 'बाहरी दबाव' नहीं होना चाहिये।
गठबंधन सरकारों के दौर में राज्यपाल की भूमिका
हाल ही में कर्नाटक में हुई राजनीतिक उठापटक में राज्यपाल वजुभाई वाला की भूमिका तब सामने आई, जब उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को सदन में शक्ति परीक्षण कराने का निर्देश कई बार दिया। भारत का संविधान संघात्मक है तथा इसमें संघ तथा राज्यों के शासन के संबंध में प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153 से 156, 161,163 एवं 164(1) तथा 213(1) में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों का उपबंध किया गया है। संघीय व्यवस्था में राज्यपाल राज्य और कार्यपालिका के औपचारिक प्रमुख के रूप में काम करता है, विशेषकर तब, जब राजनीतिक उथल-पुथल होती है। ऐसी स्थिति में जहाँ दो या अधिक दल सरकार बनाने का दावा पेश कर रहे हों, राज्यपाल को कानूनी एवं संवैधानिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करना होता है। परंतु वर्तमान में राज्यपाल पद की प्रवृत्ति में व्यापक भिन्नता देखी गई है और इसकी नज़ीर कर्नाटक विधानसभा में देखी गई। ऐसे में यह कहना आतिशयोक्ति न होगा कि गठबंधन सरकारों के इस दौर में राज्यपाल की भूमिका केंद्र के एजेंट के रूप में अधिक परिलक्षित होती है। हालिया समय में मणिपुर, मेघालय और गोवा में राज्यपालों की ऐसी ही भूमिका देखने को मिली। परंतु राज्यपाल का यह निर्णय उसके स्वविवेक पर निर्भर होता है। संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात् राज्यपाल स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद का सुझाव लेने के लिये बाध्य नहीं है। राज्यपाल की इन विवेकाधीन शक्तियों पर न्यायालय भी प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता।
- राज्यपालों को केंद्र सरकार का एजेंट न समझा जाए, इसके लिये वर्ष 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग, वर्ष 1969 में राजमन्नार समिति, वर्ष 1970 में भगवान सहाय समिति, वर्ष 1988 में सरकारिया आयोग तथा वर्ष 2011 में पुंछी आयोग ने राज्यपालों की भूमिका को लेकर कई प्रकार की सिफारिशें दी थीं, लेकिन इन पर अमल किसी भी सरकार ने नहीं किया।
सदन में सिद्ध करना होता है बहुमत (बोम्मई जजमेंट)
यह मामला भी कर्नाटक से जुड़ा है। 13 अगस्त, 1988 से 21 अप्रैल, 1989 तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एस.आर. बोम्मई की सरकार को फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था। नज़ीर माने जाने वाले इस फैसले में न्यायालय ने कहा, 'किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन आदि की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।'
- सर्वोच्च न्यायालय ने 11 मार्च, 1994 को दिया था राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करने वाला ऐतिहासिक बोम्मई जजमेंट।
- धारा 356 के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिये दिये गए इस फैसले को ही बोम्मई जजमेंट के नाम से जाना जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
- इस मामले में 9-सदस्यीय संविधान पीठ ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संदर्भ में दिशा-निर्देश तय किये।
- यह निर्णय भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय कर दिया कि बहुमत होने-न होने का फैसला सदन में होना चाहिये, राजभवन में या कहीं और नहीं।
- बोम्मई जजमेंट का असर तब देखने को मिला था जब 1997 और 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने धारा 356 के इस्तेमाल से उत्तर प्रदेश और बिहार की सरकारों को बर्खास्त करने के केंद्र के प्रस्ताव को वापस भेज दिया था।
बोम्मई जजमेंट के बाद विधानसभाओं को भंग करने का सिलसिला तो लगभग खत्म हो चुका है, लेकिन राज्यपालों के माध्यम से अपनी पसंद की सरकार बनवाने का प्रयास केंद्र की तरफ से जारी है।
अभ्यास प्रश्न: हालिया कर्नाटक मामले के परिप्रेक्ष्य में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के साथ राज्यपाल की भूमिका की भी चर्चा कीजिये।
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